मैं तुझे ढूँढ़ता रहा —
सड़को पर, आसमान में,
कभी मंदिर की सीढ़ियों पर,
तो कभी अपनी ही परछाई के पीछे।
हर बार लगा —
बस अब तू मिल जाएगा,
एक कण में, किसी शब्द में,
या किसी पुराने गीत के सन्नाटे में।
पर तू नहीं मिला —
मिला तो बस एक ख़ालीपन,
जिसमें मैं खुद को देखता रहा
धीरे-धीरे मिटते हुए,
धीरे-धीरे उभरते हुए।
मैंने अपने भीतर उतरना सीख लिया,
और वहाँ…
तेरी एक चुप्पी बैठी थी,
जो मेरी हर चीख़ से गहरी थी।
तू नहीं आया कभी सामने —
पर जब मेरी साँसें थक गईं,
तू मेरे मौन की धड़कन बन गया।
अब मैं तुझे पुकारता नहीं —
क्योंकि जो पुकारता था,
वो “मैं” अब मैं नहीं रहा।
और जो बचा है,
वो शायद तू ही है।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड