मुझमें वो बल कहाँ था कभी
कि तेरे चरणों तक पहुँच पाता—
मेरे कदम तो बिखरी रेत थे,
हर लहर आकर मिटा जाती।
मेरी साँसें टूटी बांसुरी,
जिसमें कोई राग न ठहरा,
हर सुर जैसे अधूरा-सा,
हर लय जैसे थमा हुआ सहरा।
पर तू—
ओ अनकहे नग़्मों का आधार!
तेरी ख़ामोशी ने ही
मेरी ख़ामोशी को पुकार लिया।
मैं सूखी मिट्टी रहा बरसों,
तेरी बूंदें छू गईं—
तो फूल बनकर खिल गया।
मैं बुझी राख रहा बरसों,
तेरी साँस छू गई—
तो अग्नि बनकर जल गया।
मैं खोई नाव रहा समंदर में,
तेरी लहरों ने बाँहें दीं—
तो किनारे तक पहुँच गया।
मैं काँपती लौ रहा आँधी में,
तेरे आँचल ने ढक लिया—
तो अंधेरों में भी टिक गया।
ओ प्रभु-प्रेमी!
तेरी छाया भी अमृत है,
तेरी ख़ामोशी भी सरगम है,
तेरी नज़र से ही
टूटे आईनों में उजाला उतरता है।
मुझमें बल कहाँ,
मुझमें योग्यता कहाँ—
मैं तो अधूरा अक्षर हूँ,
पर तेरी नज़र उसे भी
मंत्र बना देती है।
तू गगन है—मैं धरा,
तेरी बरसात ही
मेरी प्यास बुझाती है।
तू दीप है—मैं वात,
तेरी लौ ही
मुझे प्रज्वलित कर जाती है।
तू समंदर—मैं नदी,
तेरी बाँहों में ही
मेरा अर्थ पूरा होता है।
तू चाँद—मैं अँधियारी रात,
तेरे स्पर्श से ही
मेरा सौंदर्य जगमगाता है।
हे मेरे अदृश्य प्रीतम!
तेरे बिना मैं कुछ भी नहीं—
और तेरे साथ,
मेरी निर्बलता भी
तेरा उत्सव बन जाती है।
ले ले मुझे,
मेरे टूटेपन समेत—
जैसे तू काँटों को भी
माला में पिरो लेता है।
मुझमें बल नहीं,
पर तुझमें करुणा है।
और यही करुणा
मेरी सारी योग्यता है।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड