वो क्या है मकसद कि, सुबहो–शाम हो रहे..
जाने किसकी मर्ज़ी के, सब अंज़ाम हो रहे..।
वो जाने कौन–सा हुनर है, उनकी अदाओं में..
बड़े बड़े मिज़ाज़–दाँ भी, उनके ग़ुलाम हो रहे..।
उनका फ़लसफ़ा भी, समझ के काबिल न था..
कभी ख़ामोशी और कभी हम–कलाम हो रहे..।
न ज़िस्म में सांसे रही, और ना कुछ ख्वाहिशें बाकी..
फ़िर क्यूं हमारी ख़ातिर, ये सब इंतिज़ाम हो रहे..।
ये बदलाव की हवा, आंधियों की शक्ल अख़्तियार कर गई..
जो थे पर्देदार मु'आमलात, वो देखिए सब सरेआम हो रहे..।
पवन कुमार "क्षितिज"