जो कभी था वो, पहले सा इंसाँ न रहा..
वक्त भी अब उस तरह, मेहरबाँ न रहा..।
मंजिलों के निशाँ, हरदम बदलते ही रहे..
ये समझिए कि, सफ़र अब आसाँ न रहा..।
जहां दरकार थी, वहीं कुछ कह ना सका..
जबकि इतना भी, कभी मैं बेजुबां न रहा..।
आसमां से बहुत आगे, निकल आए हम..
और सितारों से आगे, कोई ज़हाँ न रहा..।
उनकी बेरुखी का सबब तो, बेसबब ही था..
मगर अब उनको कुछ कहने का, अरमाँ न रहा..।
पवन कुमार "क्षितिज"