था नहीं कहना जो सरे बाजार हम कहते रहे
जाने कैसे बेतुका दिन रात हम लिखते रहे
पढ़ने सुनने का सलीका था नहीं हम को जरा
छोड़के दीवान बेहतर गुमनाम हम पढ़ते रहे
लफ्ज सुन तारीफ के कुछ फूलकर कुप्पा हुए
शायरी यारों की पढ़ एक आह हम भरते रहे
है जहन कंजूस अपना लफ्ज भी सब बेवफा हैं
बैल कोल्हू की तरह बस लीक हम चलते रहे
दास मुश्किल हैं बहुत शोहरत बुलंदी का सफऱ
जो लिखन्तु ने किया एहतराम हम फलते रहे