बीती यादों के दामन से, लिपटकर रोने को जी चाहता है..
उन लम्हों, उन ख़्वाबों के ख्यालों में खोने को जी चाहता है..।
लम्हा–लम्हा टूटकर, जो वक्त आंखों के रूबरू बह गया..
उन बिखरे मोतियों को, फिर से पिरोने को जी चाहता है..।
उस वक्त के जो थे साथी, जाने कहां सब खो गए..
उनके अब वो धूमिल चेहरे, आंखों में संजोने को जी चाहता है..।
जो भी खेल थे खेले हमने, वो भी जीते हम भी जीते..
उस दौर के किसी हिस्से में, फिर से होने को जी चाहता है..।
कुछ तो घरों ने कैद किया, कुछ उसूल ज़माने के ऐसे..
तन मन को अबकी बारिश में, भिगोने को जी चाहता है..।
पवन कुमार "क्षितिज"