अब अपनी दास्तां हम ग़ज़लों में सुनातें हैं
ज़ख़्म खाये कितने ये दुनियाँ को बतातें हैं
फिर भी बयां होता नहीं दर्द-ए-दिल का हाल
कुछ -कुछ बतातें हैं कुछ-कुछ छुपाते हैं
अपने दिल की हालत क्या बताएं "श्रेयसी"
चोट खाए जिससे फिर वही याद आतें हैं
वो कितना मंसूब था मुझसे ये वही जाने
हम तो उसी बे-वफ़ा का नाम लिखते हैं मिटाते हैं
अब तो आदत सी हो गई है अश्क पीते रहने की
भरी रहती है आँखें मेरी फिर भी मुस्कुराते हैं