अपना अहवाल बताते हैं चले जाते हैं,
नींद मेरी वो उड़ाते हैं चले जाते हैं।
देते रहते हैं दुआयें मुझे ख़ुश रहने की,
मेरी तकलीफ़ बढ़ाते हैं चले जाते हैं।
मुद्दतों गुज़रे हैं इस इंतज़ार में लेकिन,
जाम आँखों से पिलाते हैं चले जाते हैं।
उनकी पहचान ज़माने में यक़ीनन होगी,
आईना ख़ुद को दिखाते हैं चले जाते हैं।
अपने रूदाद सुनाते रहे हँसते -हँसते,
हँसते-हँसते वो रुलाते हैं चले जाते हैं।
ऐसे मेहमान न आयें कभी मुफ़लिस के यहाँ,
आके अहसान जताते हैं चले जाते हैं।
जिनके टूटे हुए ख़्वाबों को समेटा मैंने,
मुझसे वो ‘अक्स’ छुपाते हैं चले जाते हैं।
-डॉ मुश्ताक़ अहमद ’अक्स’