पलायन से उजड़ा गाँव जैसा सुनसान हूँ मैं।
बंजर जमीन में धंसती नींव का मकान हूँ मैं।।
मेरे द्वार पर कोई परिंदा भी नहीं झाँकता।
यकीं मानो या ना मानो इतना वीरान हूँ मैं।।
बेशकीमती हूँ बस तेरी नजर में नही 'उपदेश'।
गैरों के लिए नफा खुद के लिए नुकसान हूँ मैं।।
मैं पत्थर दिल आँसू जाया नहीं करता अब।
हालातों से रोज लड़ता जंग–ए–मैदान हूँ मैं।।
मर सा चुका है जज्बा अब इस जिंदा लाश में।
तूने माना तो कब्र उसने माना श्मशान हूँ मैं।।
- उपदेश कुमार शाक्यावार 'उपदेश'
गाजियाबाद