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The Flower of WordThe Flower of Word by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

        

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Dastan-E-Shayra By Reena Kumari PrajapatDastan-E-Shayra By Reena Kumari Prajapat

कविता की खुँटी

                    

दिमाग़ी गुहांधकार का ओराँगउटाँग! - गजानन माधव मुक्तिबोध



स्वप्न के भीतर एक स्वप्न,

विचारधारा के भीतर और

एक अन्य

सघन विचारधारा प्रच्छन!!

कथ्य के भीतर एक अनुरोधी

विरुद्ध विपरीत,

नेपथ्य...संगीत!!

मस्तिष्क के भीतर एक मस्तिष्क

उसके भी अंदर एक और कक्ष

कक्ष के भीतर

एक गुप्त प्रकोष्ठ और

कोठे के साँवले गुहांधकार में

मजबूत...संदूक़

दृढ़, भारी-भरकम

और उस संदूक़ भीतर कोई बंद है

यक्ष

या कि ओराँगउटाँग हाय

अरे! डर यह है...

न ओराँग...उटाँग कहीं छूट जाए,

कहीं प्रत्यक्ष न यक्ष हो।

करीने से सजे हुए संस्कृत...प्रभामय

अध्ययन-गृह में

बहस उठ खड़ी जब होती है--

विवाद में हिस्सा लेता हुआ मैं

सुनता हूँ ध्यान से

अपने ही शब्दों का नाद, प्रवाह और

पाता हूँ अकस्मात्

स्वयं के स्वर में

ओराँगउटाँग की बौखलाती हुंकृति ध्वनियाँ

एकाएक भयभीत

पाता हूँ पसीने से सिंचित

अपना यह नग्न मन!

हाय-हाय और न जान ले

कि नग्न और विद्रूप

असत्य शक्ति का प्रतिरूप

प्राकृत ओराँग...उटाँग यह

मुझमें छिपा हुआ है।

स्वयं की ग्रीवा पर

फेरता हूँ हाथ कि

करता हूँ महसूस

एकाएक गरदन पर उगी हुई

सघन अयाल और

शब्दों पर उगे हुए बाल तथा

वाक्यों में ओराँग...उटाँग के

बढ़े हुए नाख़ून!!

दीखती है सहसा

अपनी ही गुच्छेदार मूँछ

जो कि बनती है कविता

अपने ही बड़े-बड़े दाँत

जो कि बनते हैं तर्क और

दीखता है प्रत्यक्ष

बौना यह भाल और

झुका हुआ माथा

जाता हूँ चौंक मैं निज से

अपनी ही बालदार सज से

कपाल की धज से।

और, मैं विद्रूप वेदना से ग्रस्त हो

करता हूँ धड़ से बंद

वह संदूक़

करता हूँ महसूस

हाथ में पिस्तौल बंदूक़!!

अगर कहीं पेटी वह खुल जाए,

ओराँगउटाँग यदि उसमें से उठ पड़े,

धाँय धाँय गोली दागी जाएगी।

रक्ताल...फैला हुआ सब ओर

ओराँगउटाँग का लाल-लाल

ख़ून, तत्काल...

ताला लगा देता हूँ मैं पेटी का

बंद है संदूक़!!

अब इस प्रकोष्ठ के बाहर आ

अनेक कमरों को पार करता हुआ

संस्कृत प्रभामय अध्ययन-गृह में

अदृश्य रूप से प्रवेश कर

चली हुई बहस में भाग ले रहा हूँ!!

सोचता हूँ--विवाद में ग्रस्त कई लोग,

कई तल

सत्य के बहाने

स्वयं को चाहते है प्रस्थापित करना।

अहं को, तथ्य के बहाने।

मेरी जीभ एकाएक तालू से चिपकती

अक़्ल क्षारयुक्त-सी होती है...

और मेरी आँखें उन बहस करने वालों के

कपड़ों में छिपी हुई

सघन रहस्यमय लंबी पूँछ देखतीं!!

और मैं सोचता हूँ...

कैसे सत्य हैं--

ढाँक रखना चाहते हैं बड़े-बड़े

नाख़ून!!

किसके लिए हैं वे बाघनख!!

कौन अभागा वह!!




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