चीर नहीं था,
वो तो धर्म की देह पर
फट चुके छालों का पहला रिसाव था।
तुम कहते हो — द्रौपदी कारण थी,
मैं कहती हूँ —
द्रौपदी तो बस एक प्रश्न थी,
जिसे सबने देखा,
पर किसी ने सुना नहीं।
महाभारत उस दिन नहीं हुआ,
जिस दिन सभाभवन में कपड़े उतारे गए,
बल्कि उस रात से शुरू हुआ
जब धर्म ने सिर झुका लिया
और चुप्पियाँ अपने-अपने सिंहासनों पर बैठ गईं।
भीष्म की प्रतिज्ञा धर्म नहीं थी,
द्रोण की चुप्पी ज्ञान नहीं थी,
विदुर की चेतावनी न्याय नहीं थी —
और युधिष्ठिर का मौन धर्मराज नहीं था।
धर्म की हत्या किसी हथियार से नहीं होती,
वो होती है धीरे-धीरे
जब हर कोई सोचता है —
‘ये मेरा युद्ध नहीं है।’
और स्त्रियाँ जली हुई रोटियों की तरह
थाल में परोसी जाती हैं।
क्या चौदह साल पर्याप्त नहीं थे?
धूप, वनवास, संकल्प, प्रतीक्षा —
क्या क्षमा, शांति, और संवाद के लिए
इतना समय भी कम था?
नहीं।
क्योंकि यह युद्ध
स्त्रियों के अपमान का नहीं था,
यह युद्ध उस युग की आत्मा का था,
जिसे चुप रहने की लत लग चुकी थी।
और जो युग मौन से प्रेम करता है,
उसे युद्ध से ही उत्तर मिलता है।
धर्मयुद्ध इसलिए हुआ,
क्योंकि एक स्त्री का चीत्कार
कानों में गूंजता रहा
और सब उसे
‘नियति’ कहकर टालते रहे।
धर्मयुद्ध इसलिए हुआ,
क्योंकि सड़े हुए नैतिक मूल्य
अब शांति से नहीं जला सकते थे —
उन्हें युद्ध की अग्नि चाहिए थी।
महाभारत का युद्ध
एक उत्तर नहीं था,
वो अंतिम प्रश्न था —
कि धर्म किसे कहते हो तुम?
और किस कीमत पर जिएगा ये संसार?
अब भी अगर तुम्हें लगे कि ये युद्ध एक स्त्री के कारण था —
तो सुनो,
हर सभ्यता तब ही टूटती है
जब उसकी स्त्रियाँ न्याय माँगती हैं
और उसे ‘कारण’ कहा जाता है।)
— “शारदा