खामोशियाँ कुछ हद तक,
समझ मैं आती हैं,
जिनकी हद ही न हो,
उनका क्या करें?
उलझनों को सुलझाना,
कब तक जारी रखूं,
कभी तो सुकून मिले,
कभी तो आराम हो!
रुक जाती हैं धड़कनें,
या पकड़ लेती हैं रफ़्तार,
ज़िन्दगी इस पल में कुछ और,
तो, उस पल में कुछ और है।
क्या गलत और क्या सही,
सब पता है या कुछ भी नहीं,
एक समय सब ठीक था,
यह समय भी ठीक है।
माँ , भारत और गाय में,
यही समझ नहीं आता है,
किसी को इनकी फ़िक्र नहीं,
फिर यह राजनीति क्यों है?
मिटटी की धूल के कण,
बराबर नहीं, यह ज़िन्दगी,
फिर भी कैसा मोह है,
और यह कैसा मोड़ है?
राह दिखाने वाले से बस,
इतनी सी है आरजू,
हाथ पकडे रहना बस
चाहे लाख अँधेरे दो!
----अशोक कुमार पचौरी