कहा जाता है —
भगवान मंदिरों में बसते हैं,
घंटियाँ बजाओ, दीप जलाओ,
आरती गाओ, चढ़ावा चढ़ाओ।
पर सोचो —
क्या वाकई वो बस वहीं हैं?
क्या पत्थर की मूरत ही प्रभु का स्वरूप है?
या फिर वो हर साँस में, हर जीव में, हर कण में छुपा रूप है?
भगवान वहाँ हैं —
जहाँ भूखा बच्चा रोटी मांगता है,
जहाँ कोई लाचार सड़क किनारे सोता है,
जहाँ माँ बिना दवा के तड़पती है,
जहाँ किसान सूखी धरती पर रोता है।
वो उस रिक्शेवाले की थकन में हैं,
जो रात भर मेहनत कर पेट पालता है,
वो उस औरत की हँसी में हैं,
जो दुःख छुपाकर भी उम्मीदें पालती है।
मंदिर में दीप जलाना बुरा नहीं,
पर भगवान सिर्फ वहीं ढूँढना अधूरा है।
वो तो उस जानवर की आँखों में हैं,
जिसे तुम रोज़ पत्थर मारकर भगाते हो।
वो उस पेड़ की छाँव में हैं,
जो बिना माँगे तुम्हें ठंडक देता है।
वो उस झरने की धुन में हैं,
जो बिना थके सदा बहता है।
क्या ज़रूरी है मंदिर में जाना?
जब हर इंसान में ईश्वर का वास है।
जब हर करुणा, हर सेवा, हर सच्चाई
खुद एक जीता-जागता देवता है।
तो अब मंदिरों में ही क्यों खोजो उन्हें?
जब वो हर जगह हैं —
बस अपने मन का दरवाज़ा खोलो,
और देखो, ईश्वर मुस्कुरा रहा है —
तुम्हारे आस-पास ही कहीं।


The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra
The Flower of Word by Vedvyas Mishra







