बंद कर दो —
ये शोर, ये सवाल, ये उम्मीदों की रेलगाड़ी।
हर मोड़ पर बस एक और चाह,
हर साँस में छुपा कोई और नाम…
कब तक?
बंद कर दो —
ये दरवाज़े जो हर बार खुलते हैं
बस टूटने को।
इन खिड़कियों से आती रौशनी नहीं,
बस बीती धूप की जलन है।
कब तक?
बंद कर दो —
ये हँसी जो भीतर की चीख़ों को ढँकती है।
ये चेहरा जो आईने से झूठ बोलता है।
ये सजावट जो रूह की राख पर लिपटी है।
कब तक?
बंद कर दो —
ये दुनिया जो समझने का दिखावा करती है,
पर सुनती नहीं।
ये रिश्ते जो बाँधते कम,
खरोंचते ज़्यादा हैं।
कब तक?
बंद कर दो —
मुझे…
या शायद खोल दो मुझे…
मेरे ही भीतर।
जहाँ कुछ न कहने की आज़ादी हो,
जहाँ मौन बोलता हो —
और वो सच हो।