##बलिया की शहादत, कविता की आवाज़—अभिषेक मिश्रा का बलिदान दिवस पर विशेष लेखन...
बलिया — जिसे इतिहास “बगावत की जननी” कहते है — ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में अंग्रेज़ी सत्ता की नींव हिला दी थी। नौ दिनों तक यहाँ जनता ने खुद शासन चलाकर देश को दिखा दिया कि स्वतंत्रता अब दूर नहीं।
बलिदान दिवस पर युवा कवि-लेखक 'अभिषेक मिश्रा' ने अपनी कविता “बाग़ी बलिया का सूरज” के माध्यम से उसी ऐतिहासिक गाथा को शब्दों में जिया है। कविता की पंक्ति —
“गरज उठा जो बलिया में, वह बाग़ी बलिया का सूरज था”
स्वराज की लौ और जनता की एकता का प्रतीक बन जाती है।
छात्रों का किताबें छोड़ना, किसानों का हल थामना, माताओं का आरती से रण का स्वागत करना और बेटों का हँसते-हँसते प्राण देना — इन सबको कवि ने भावपूर्ण चित्रों में पिरोया है।
अभिषेक मानते हैं कि युवा कलम केवल इतिहास को याद रखने का साधन नहीं, बल्कि नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा का प्रकाशस्तंभ भी है। उनकी लेखनी साबित करती है कि बलिया की मिट्टी आज भी स्वराज और बलिदान की अमर धरोहर समेटे हुए है।
"बाग़ी बलिया का सूरज"
(बलिया — बगावत की जननी, बलिदान की धरती)
सुनो कहानी बलिया की, गाथा रण की शान की,
जहाँ मिट्टी भी महक उठी आज़ादी के गान की,
अंग्रेज़ी जंजीरों को तोड़ फेंकने के मान की,
सपथ उठी हर हथेली भारत माँ के सम्मान की,
लहू से लिखी गाथा में अमर विश्वास था,
गरज उठा जो बलिया में — वह बाग़ी बलिया का सूरज था!
अगस्त का वह दिन था, जब गंगा-तट लहराया,
बलिया के हर गाँव ने स्वराज का दीप जलाया,
चौक-चौराहों पर जनसैलाब उमड़ आया,
हर दिशा में “अंग्रेज़ो, भारत छोड़ो” का नारा छाया,
आँधियों से भी तेज़ जो क्रांति का उल्लास था,
गरज उठा जो बलिया में — वह बाग़ी बलिया का सूरज था!
छात्रों ने पुस्तक छोड़ी, खेतों ने हल थाम लिया,
मजदूरों ने औज़ार रख, क्रांति का बिगुल थाम लिया,
माताओं ने आरती संग रण-पथ का स्वागत किया,
बेटों ने कफ़न सिर बाँधा, हँसते-हँसते प्राण दिया,
हर चेहरे पर विजय का ही उल्लास था,
गरज उठा जो बलिया में — वह बाग़ी बलिया का सूरज था!
थाने, कोठी, कचहरी — सब जनता ने जीत लिए,
अंग्रेज़ी फरमानों को माटी में रौंद दिए,
नौ दिन तक स्वराज का परचम ऊँचा लहराया,
जनता ने खुद शासन कर इतिहास सुनाया,
हर दिल में यह स्वराज का ही सुवास था,
गरज उठा जो बलिया में — वह बाग़ी बलिया का सूरज था!
बाबू चित्तरंजन, मुरली-मनोहर, वीर जगन्नाथ,
खड़े हुए रणभूमि में बनकर जनता की आहट साथ,
गोलियों की बौछारें भी रोके न उनका पथ,
डटे रहे हर जवान, चाहे जितना कठिन पथ,
बलिदान में ही उनका पूरा विश्वास था,
गरज उठा जो बलिया में — वह बाग़ी बलिया का सूरज था!
तोपों की गड़गड़ाहट में भी गीत स्वराज के गाए,
लाशों की कतारों में भी दीपक आशा के जलाए,
माँ ने बेटे की चिता पर रोते-रोते गीत सुनाए,
“मेरा लाल गया, पर भारत में सौ सूरज उग आए।”
हर अश्रु में विजय का ही आभास था,
गरज उठा जो बलिया में — वह बाग़ी बलिया का सूरज था!
अंग्रेज़ी सत्ता काँप उठी नौ दिनों की आग से,
बर्बरता के वार चले, पर जोश न टूटा राग से,
हज़ारों घर सूने हुए, पर चूल्हे जले त्याग से,
रणभूमि में खड़े रहे हिम्मत और उजाले से,
हर आँगन में बलिदान का इतिहास था,
गरज उठा जो बलिया में — वह बाग़ी बलिया का सूरज था!
गंगा-घाट से लेकर सिवान तक बिगुल बजे,
बलिया के वीरों के आगे अंग्रेज़ी पाँव सजे,
धरती बनी गवाह, आकाश ने जय-घोष रचे,
हर लहू की बूंद में स्वतंत्रता के रंग बहे,
हर पग में क्रांति का ही उल्लास था,
गरज उठा जो बलिया में — वह बाग़ी बलिया का सूरज था!
बलिया की गलियों में वह दिन आज भी याद है,
जहाँ हर ईंट, हर पेड़ आज़ादी का फरमान है,
नौ दिन का स्वराज ही भारत की पहचान है,
यह मिट्टी अब भी गाती — “यह बलिदान महान है।”
हर धड़कन में आज़ादी का ही विश्वास था,
गरज उठा जो बलिया में — वह बाग़ी बलिया का सूरज था!
आज जब बलिदान-दिवस पर दीप जलाए जाते हैं,
बलिया के वीरों को प्रणाम किए जाते हैं,
उनकी गाथाएँ पीढ़ियों को सुनाई जाती हैं,
और क्रांति की वह लौ फिर से जगाई जाती है,
हर मन में स्वराज का ही सुवास था,
गरज उठा जो बलिया में — वह बाग़ी बलिया का सूरज था!
बलिया, तूने सिखाया कि हिम्मत कैसे जगानी है,
कुर्बानी के बिना स्वतंत्रता कहाँ आनी है,
तेरा सूरज आज भी भारत के गगन में पानी है,
तू ही आज़ादी की अमर कहानी है,
हर युग में तेरा अमिट इतिहास था,
गरज उठा जो बलिया में — वह बाग़ी बलिया का सूरज था!
लेखक: अभिषेक मिश्रा
"लेखक परिचय"
अभिषेक मिश्रा, उत्तर प्रदेश के जनपद बलिया के चकिया गाँव, बैरिया क्षेत्र के निवासी, समकालीन हिंदी कविता जगत के एक उभरते हुए कवि और लेखक हैं। इनकी रचनाओं में समाज की सच्चाइयाँ, पारिवारिक भावनाएँ और राष्ट्रभक्ति की गहरी झलक मिलती है। "धरती की अनकही दास्तां", "माँ: एक जीवन गाथा", "पिता की परछाई", "ऑपरेशन सिंदूर: एक सशक्त उत्तर", "पुरुष सशक्तिकरण की आवाज़", "मैं पंछी तेरे आंगन की" जैसी कविताएँ पाठकों के बीच विशेष लोकप्रिय रही हैं।
इनकी रचनाएँ अमर उजाला, प्रतिलिपि, साहित्यशाला, हिंदी बोल इंडिया, कलमकार पोर्टल, लिखंतु डॉट कॉम, और राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच सहित कई पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों व ऑनलाइन मंचों पर प्रकाशित हो चुकी हैं। इन्हें कई साहित्यिक मंचों पर सम्मान और सराहना भी प्राप्त हुई है।
अभिषेक मिश्रा का साहित्यिक प्रयास समाज में सकारात्मक सोच, नई पीढ़ी को प्रेरणा और भारतीय संस्कृति को सशक्त अभिव्यक्ति देने की दिशा में निरंतर जारी है।