तेरी आँख का गर इशारा न होता,
तो दिल ये कभी भी अवारा न होता।
बड़े मौज़ में कट रहा था सफ़र,
थी राह टेढ़ी, मगर हो रहा था गुज़र।
कदम डगमगाये, ये गंवारा न होता,
तो दिल ये कभी भी अवारा न होता।।
दरश करते करते,तरस आ गया था,
लगी आग दिल में, परस हो गया था।
बढ़ी धड़कनें, वो नज़ारा न होता,
तो दिल ये कभी भी अवारा न होता।।
जिधर तुम कहे, चल दिये थे उधर,
जिधर दृष्टि डाली, आ रहे थे नज़र।
भला क्या,बुरा क्या, पुकारा न होता,
तो दिल ये कभी भी अवारा न होता।।
कहां आ गए हम, भटकते-भटकते,
कदम बढ़ रहे हैं अटकते अटकते।
सुध बुध रहा जो, नकारा न होता,
तो दिल ये कभी भी अवारा न होता।।
तमन्ना थी तेरी, खिले फूल प्यारा,
मगर चुभ गया शूल था जो बेचारा।
नहीं चाह कर, साथ तेरा न होता,
तो दिल ये कभी भी अवारा न होता।।
दिशा हीन निरुद्देश्य कहें हम इसे क्यों,
अवारा बेचारा चला ले दिशा यों।
मसीहा बना गर तुम्हारा न होता,
तो दिल ये कभी भी अवारा न होता।।
छुड़ाना भी चाहोगे ,तुम जो ये दामन,
कहां छूट पाओगे, मन से नशेमन।
मन ने तुझे गर स्वीकारा न होता,
तो दिल ये कभी भी अवारा न होता।।
मिलन प्रेम में, मन से, मन का व मन का,
बही धार बन कर, सुरूर -ए-जतन का।
ख़ुदा की है मर्जी, ये हुंकारा न होता,
तो दिल ये कभी भी, अवारा न होता।।
कृष्ण मुरारी पाण्डेय
रिसिया-बहराइच