है कौरव पाण्डवों का युद्ध,
छिड़ गया कुरुक्षेत्र में।
निद्राविजयी अर्जुन के तो,
आंसू भरे हैं नेत्र में।।
जब युद्ध के लिए खड़ा,
कुटुंब देख सामनें।
कर से गिरा गाण्डीव है ,
और तन लगा है कांपने।।
दादा,गुरू,आचार्य,भाई ,
और देख मित्र को।
अर्जुन अवाक रह गए ,
प्रत्यक्ष देख शत्रु को।।
व्याकुल हुआ मन शोक से,
ये सोच और विचार कर।
न जी सकूंगा चैन से,
अपनों को ही मैं मारकर। ।
आचरण द्रोण,भीष्म को,
निज हांथो से ही मार कर।
के क्या करूंगा राज्य का,
और क्या करूं अधिकार कर।।
हैं हाथ मेरे कांपते,
ये सोच और विचार कर ।
कैसे करूं अन्याय ये,
सम्बंधियों को मारकर। ।
धन धान्य से सम्पन्न अब,
न राज्य मुझको चाहिए।
मन चाहता संतोष है,
और शांति मन को चाहिए। ।
मरने का है न डर मुझे,
मैं मारने से डर रहा।
होगा विनाश वंश का,
यदि मैं ये युद्ध कर रहा।।
त्याग कर गाण्डीव को,
संकल्प अपना तोड़कर।
केशव करूंगा युद्ध न मैं,
जा रहा रण छोड़कर। ।
बोले हैं कृष्ण पार्थ से,
तू त्याग कर विवेक को।
भयभीत हो विनाश से,
क्यों कर रहा है शोक को?
तन कांपता मन है दुखी,
जिनके लिए ये शोक कर।
बिन युद्ध के न देने वाले,
राज्य सुई की नोक भर।।
कर धर्म की स्थापना,
अधर्मियों को मारकर।
अर्जुन उठा गाण्डीव को,
और शत्रु का संघार कर। ।
भयमुक्त होके युद्ध कर,
और तू विजय को प्राप्त कर।
अर्जुन उठा गाण्डीव को,
और शत्रु का संघार कर। ।
रणभूमि में हैं धर्म का,
संदेश दे रहे प्रभू।
अर्जुन को आज गीता का,
उपदेश दे रहे प्रभू।।
मंदिर में हूं,मस्जिद में हूं,
मैं और हूं विश्वास में।
तू है अकेला ही कहां,
मैं हूं तेरे पास में।।
मैं हूं दिलों की धड़कनों में,
और तेरी स्वांस में।
तू है अकेला ही कहां,
मैं हूं न तेरे पास में।।
मैं अग्नि नीर,भूमि,वायु,
और हूं आकाश में।
मैं हूं विशाल वृक्ष में,
तो और हूं मैं घास में।।
मैं धूल कण सा सूक्ष्म हूं,
आकाश सा अनन्त हूं।
मैं श्रृष्टि का सम्राट हूं,
मैं आदि हूं, मैं अंत हूं।।
मैं राम का वनवास हूं,
कौरवों का मैं संग्राम हूं।
द्वापर में यदि मैं कृष्ण हूं,
त्रेता में तो मैं राम हूं।।
मैं शास्त्र में हूं,ग्रंथ, वेद,
और हूं पुराण में।
मैं योगियों के योग में हूं,
ज्ञानियों के ज्ञान में।।
मैं सूर्य में हूं,चंद्र में,
ग्रहों में हूं नक्षत्र में।
मैं हूं दशों दिशाओं में,
मैं अस्त्र में हूं,शस्त्र में।।
मैं कीर्ति,दण्ड, नीति में,
कर्तव्य और कर्म में,
करुणा,क्षमा,बलिदान, त्याग,
और दान, धर्म में।।
मैं वर्ण,शब्द, वाक्य, छंद,
और हूं समास में।
हूं मृत्यु का महाराज मैं,
उत्पत्ति और विनाश में।।
मैं मूक हूं,बाचाल हूं,
मैं शांत और मौन हूं।
क्या हो गया है ज्ञात अब,
अर्जुन तुझे मैं कौन हूं।।
हे पार्थ अब भी शत्रु की,
परवाह मन में रह गई।
मैं पूर्ण कर दूं यदि कोई भी ,
चाह मन में रह गई। ।
ब्रम्हाण्ड हैं अनन्त कोटि,
व्याप्त उस स्वरुप को।
मैं चाहता हूं देखना अब,
उस विराट रूप को।।
विराट रूप को ही क्यों,
हजार रूप देख तू।
अनेक रंग, आकृति,
अनन्त रूप देख तू।।
अर्जुन मेरी विभूतियां,
होती नहीं समाप्त हैं।
हूं विश्व में मैं व्याप्त,
और विश्व मुझमें व्याप्त है।।
दिखा दिया अनन्त रूप,
दिव्य चछु प्रदान कर।
वो स्तुति करने लगे,
मस्तक झुका प्रणाम कर।।
अनेक मुख,विशाल नेत्र,
दिव्य अस्त्र-शस्त्र हैं।
माला ,तिलक है,दिव्य गहनें ,
और दिव्य वस्त्र हैं।।
सिर पर मुकुट धारण किए,
हैं मोरपंख माथ में।
है शंख,चक्र और पद्म,
दिव्य गदा हाथ में।।
हे देव आपमें ही सर्व,
देव विद्यमान हैं।
हे देव श्रेष्ठ आपको,
प्रणाम है,प्रणाम है।।
देदीप्यमान रूप,
कांति सूर्य के समान है।
हे उग्र रूप आपको,
प्रणाम है,प्रणाम है।।
हे नाथ आप ही तो,
सर्व श्रृष्टि के आधार हैं,
अनन्त रूप आपको ,
प्रणाम बार बार है।।
शिखा प्रजापति
कानपुर देहात उ.प्र.