कभी खुद से पूछा, जवाब क्या है?
ये जीवन तेरा, हिसाब क्या है?
ज़माना कहे तू बिगड़ गया है,
मगर तुझसे ही इहतियाज क्या है?
जो भागेगा तू अपने फ़र्ज़ों से,
तो फिर तेरे होने का राज़ क्या है?
तू रस्ता भी है, तू ही मंज़िल भी,
तेरे पाँवों में ये इलाज क्या है?
उठा ले जो बोझ तू अपने कंधों पर,
तो जीने में फिर ऐतराज़ क्या है?
ज़िम्मेदारी से जो डर गया है,
उसे मौत से भी निजात क्या है?
जो सच में जिया, वो जला है अंदर,
ये झूठों की सी हर बात क्या है?
कभी खुद से मिल, तू समझ सकेगा,
तेरे भागने की औक़ात क्या है?