अपने “मैं”को ढूँढने चला
तब जाना कि मेरे “मैं” में तो अहम् भरा
न तन अपना ,न मन अपना
न साँसे अपनी ,न दुनिया अपनी
तो क्यों ढूँढ कर उसे सिर का ताज़ बनाना
उसे तो मन्दिर,मस्जिद,गुरुद्वारे में ही छोड़ आना था
धामों ,तीर्थों में ही बहा आना था
पर ऐसी ज़िद्द उसकी
फितरत देखो कैसी उसकी
जब जब छोड़ कर आते उसको
अपने से जुदा कर आते उसको
अब नहीं तुझे अपनाना यह कह कर आते उसको
पर कदम रखते ही संसारी दुनिया में
फिर वह (मैं) हम में समा जाता ..
वन्दना सूद