यह वक्त नहीं चलता इंसान ही चलता है
इंसान समझता है यह वक्त गुजरता है
कितना भी चढ़े सूरज आकाश के सीने पे
हर सुबहा निकलता है शाम को ढलता है
मेरा ना हुआ कोई अफ़सोस नहीं कुछ भी
अपना ना कहे कोई इतना ही अखरता है
सदियों से रहा पागल यह सारा जमाना ही
ता उम्र गुनाहों की ये घाटी में भटकता है
कोई ना रखा बाक़ी तो उपचार दवाओं का
जितना भी रखा मरहम ये दर्द ही बढता है
लहरों पे लगाता है दिन रात का जो पहरा
अफ़सोस यहाँ वो ही पानी को तरसता है
ये प्यार का हमराही उस मोम का पुतला है
सर्दी में पिघलता है ओर आग में जमता है
बुलबुल की तबाही का मुजरिम बना गुल है
करता है कतल कोई निर्दोष ही मरता है
तितली जो कोई गुल पे है मंडराती हुई बैठी
नन्हा सा कोई हाथ ये छूने को मचलता है
हर रात कोई खुशबू तन मन को लुभाती है
चुपके से खिला चंदा आँगन में उतरता है
मुश्किल है बड़ा माना हर जुर्म से भिड़ जाना
इंसान मगर लड़कर कुंदन सा निखरता है
अब झूंठ का दुनियां में है दास खुला ज्ञापन
बेहाल हुआ सच भी लोगों को अखरता है
ये रंग हैं सभी झूंठे खुद तस्वीर भी नकली है
चेहरे पे नया चेहरा हर रोज बदलता है