इंसाँ में इन्साँ की, तलाश कब तक..
ये फ़िज़ाँ यूं रहेंगी, उदास कब तक..।
ज़माने की हकीकत, समझ न सका..
रक्खूं भी उससे कोई, आस कब तक..।
उनको भूलने को, भूल ही जाएंगे कभी..
ज़िंदगी को रहेगा, होशोहवास कब तक..।
"राम" तो अपने घर लौट ही आए है अब..
उनके इल्म को रहेगा, वनवास कब तक..।
आ जाओ कि, सर–सब्ज़ हो महफिलें अब..
ये तनहाइयां रहेंगी, यूं बे–लिबास कब तक..।
पवन कुमार "क्षितिज"