कब से आँख-मिचौली करती आँखें।
नजर में आकर नजर चुराती आँखें।।
अपनी सीमा से बाहर में पेच लड़ाए।
बदनामी के डर को झुठलाती आँखें।।
जाहिर होने से पहले मोती टपकाती।
सार्वजनिक कमजोरी छिपाती आँखें।।
अदाओं से भरपूर समर्थन सब करते।
शरारती होती पलक झपकाती आँखें।।
ख्वाबों की तस्करी धंधा मंदा 'उपदेश'।
तब जमाखोरी के भेद दफनाती आँखें।।
उनके दिख जाने पर उदासी उड़न छू।
एकदम भाव विभोर कर जाती आँखें।।
- उपदेश कुमार शाक्यावार 'उपदेश'
गाजियाबाद