"ग़ज़ल"
सभी रो रहे सभी ढो रहे ये वो गिराॅं बार है!
थकी धड़कनों के कंधों पे ज़िंदगी सवार है!!
हवस का मारा आदमी किस क़दर कमज़ोर है!
ये लालच में है मुब्तला ये बरसों से बीमार है!!
न पहले-से वो दिल रहे न पहले-से जज़्बात हैं!
न पहले वाली मोहब्बतें न पहले वाला प्यार है!!
ज़मीर जिस का मर गया हर काम गिरा वो कर गया!
है बे-हिसी कुछ इस क़दर कि न कोई शर्मसार है!!
अब कहाॅं ईमान है? अब कहाॅं कहीं शर्म-ओ-हया?
बे-ईमानी-ओ-बे-शर्मी का गर्म यहाॅं बाज़ार है!!
मस्नू'ई मुस्कुराहटें ख़ुश-बाशी भी इक धोका है!
इंसानियत से दूर इंसाॅं ख़ुद से ही बेज़ार है!!
'परवेज़' ये आधुनिकता है? या सब-के-सब बीमार हैं!
ये मोबाइल का इंफ़ेक्शन है नेट का ये बुख़ार है!!
- आलम-ए-ग़ज़ल परवेज़ अहमद
© Parvez Ahmad