"ग़ज़ल"
मिरे अपनों ने मुझ को कभी अपना के नहीं देखा!
मैं किस हाल में ज़िंदा हूॅं कभी आ के नहीं देखा!!
शायद वो रहते थे किसी दूसरी दुनिया में!
हम ने भी उस दुनिया को कभी जा के नहीं देखा!!
मरने के लिए काफ़ी था अपनों का दिया अमृत!
होता है ज़हर कैसा कभी खा के नहीं देखा!!
उसे कैसे यक़ीं होता भला मेरी मोहब्बत पर!
उस ने भी कभी मुझ को आज़मा के नहीं देखा!!
इस प्यासी धरती की वो क्या प्यास बुझा पाता!
उस आवारा बादल ने भी कभी छा के नहीं देखा!!
इस दिल की ज़ुबाॅं तुम भी समझ जाते मिरे हमदम!
मुझे अपने सीने से कभी लगा के नहीं देखा!!
वो दुनिया से बड़ा पाती 'परवेज़' मिरे दिल को!
मिरे दिल में कभी उस ने समा के नहीं देखा!!
- आलम-ए-ग़ज़ल परवेज़ अहमद
© Parvez Ahmad