सफ़र पर आगे बढ़ने,
चुनी नई सड़क मैंने,
भूला कर रंज़िश अपने ,
नया मोड़ लिया तपने I
चलते ख़ुद को तपाया ,
कभी द्रवित न होने दिया ,
सहनशक्ति से बढ़ते चला,
सड़क से मोड़ लेते रहा I
ओले-आँधी.धूप-कोहरा,
सब झेला,सामना करता रहा ,
जीवन के डगर पर सब सहा ,
बिना रुके चलता ही रहा I
मंजिल पाने की होड़ के लिए ,
बहुत रिश्ते अपने बिगड़ गए ,
छूट गए जो साथ चल न पाए,
वे कहीं बादलों में छिप लिए I
क्या खिलौना बन रहा गया ?
क्या मर्जी से मैं चला पाया ?
मिला क्या वही सच हो गया ?
सड़क,बेबाक देखता रह गया I
वर्षा शिवांशिका
कुवैत