परम्पराएँ, संस्कार, विचार, मान्यताएँ, धारणाएँ
हमें गुलाम बना देती है
हमें पंगु कर देती है
हम खड़े है संसार के आखरी द्वार पे
जहाँ से परम आकाश ही आकाश
पर हम उड़ नहीं पा रहे है
हम खड़े है जगत की आखरी छोर पे
जहाँ से अमृत का महासागर
पर हम डुबकी नहीं लगा पा रहे है
जैसे हमें कोई पीछे खिंच रहा है
जैसे हमें किसीने बाँध के रखा है
यह बंधन की पीड़ा
हे भगवंत...
क्या कहूँ ? क्या न कहूँ ?
✍️ प्रभाकर, मुंबई ✍️