नफरतों की आग पर
समाज क्यों ये पक रहा।
बचाएगा इसे बोलो कौन
जब अपना हीं इसे जला रहा।
ये कौन सी राह है।
ये कौन सी चाह है।
पल पल विश्वास कम हो रहा।
जात धर्म मज़हब भेष भूषा ये
पल पल कौन बदल रहा।
मानव हीं दानव बन
मानवता लील रहा।
मौन मुंह सिल रहा
अंधकार खिल रहा
ये क्या कब कहां
कोई रच रहा।
बस सब ओर
मच मच मच रहा
सब तहस नहस हो रहा
ये क्या हो रहा...
ये क्या हो रहा..