"ये कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं,
अपनी खामियों का खामियाजा वो हमसे भरवाने लगे हैं।।1।।
जो कल तक गुजरते थे नजरें झुकाकर गलियों से हमारी,
आज वे ही हमें नज़रें दिखाने लगे हैं।।2।।
जिन्हें समझते थे हम खुली किताब सा कभी,
वो अपने राज़ के परदे उठाने लगे हैं।।3।।
कल तक जो तरसते थे चंद पल बिताने को हमसे,
आज हमसे बात न करने के बहाने बनाने लगे हैं।।4।।
अब तो कोई नींद से जगा दो यारों,
हमें बड़े बुरे ख़्वाब सताने लगे हैं।।5।।
अब के सावन में बरसात कम क्या हुई,
वो आंखों से पानी बहाने लगे हैं।।6।।
माना दूर हुए हम उनसे कुछ मजबूरियों की खातिर ,
वो हैं कि हमें दुनिया के आगे बेवफा ठहराने लगे हैं।।7।।
अब कह रहे हैं सभी कि एक पल में हम भुला दें उन्हें,
इतिहास गवाह है पहला प्यार भुलाने में जमाने लगे हैं।।8।।
ये कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं..।।"
----कमलकांत घिरी