जी का जंजाल होगया है,
बहुत बुरा हाल होगया है,
कभी रोते देखा नहीं जिसको,
कहीं छुपकर आज रो गया है,
कभी अखबारों में
पढ़ने को मिलती थी
कुछ मनहूस खबरें
अन्न दाता नहीं रहा
बाड़ ने फसल डूबा दी
लटक गया फंदे पर
क्यों लटका होगा
यह तब समझ में आया
'एक बार अपनी फसल भी
टिड्डियों ने बर्बाद कर दी,
सरकार की तरफ से
मुआवजा मिलना था,
बहुत दिनों तक
ढोंग ढकोसले चले
सरकारी बाबू आये गए
खेतों की जाँच हुयी,
बैंक अकाउंट डिटेल भी ली गयीं,
मुआवजे वाला दिन आया,
प्रति बीघा २०० रुपये,
सरकार ने मुआवजा दिलवाया,
दिल दहल गया,
सरकार की दरियादिली देख कर,
पैसों का क्या है पैसे तो आते जाते रहेंगे,
मैं दुखी था पापा को दुखी देख कर,
मन में विचार कौंधे थे ऐसे,
नहीं कौंधने थे,
पर पापा की हिम्मत के आगे
मैं नतमस्तक
कल भी था, आज भी हूँ
और हमेशा रहूँगा'
लेकिन बड़ा हैरान हूँ
पहले जो मनहूस खबरें आती थी,
मनहूसियत कहीं गयी नहीं,
पर अख़बारों में
उनके लिए जगह रही नहीं
ऐरे गेरे विज्ञापन
ऐरे गेरे नेता
उनके कागजी काम
इसके अलावा कुछ भी नहीं अख़बारों में
बस नेताजी का नाम
हाय रे अन्नदाता
भाग्य विधाता
तुझे शत शत प्रणाम!!
शत शत प्रणाम!!
----अशोक कुमार पचौरी