कापीराइट गजल
ये यादें मुझे तुम्हारी, सताने लगी हैं
जज्बात मेरे दिल में जगाने लगी हैं
सदियों, से गुम थी, जो दिल में मेरे
वो पायल ये सरगम सुनाने लगी है
छुपाती थी हाथों से जो चेहरा अपना
गोरी वो घूंघट में यूं शरमाने लगी है
खोई हुई थी जो मुस्कुराहट लबों की
वही मुस्कान लबों पर छाने लगी है
खामोश थी जो किसी मूरत की तरह
चिलमन हटा के वो गुनगुनाने लगी है
वो हंसती है हम पे कर के ठिठौली
वो चुपके से ईशारों में बुलाने लगी है
बसी है शरारत यूं रग-रग में उसकी
हर पल अब मुझे वो सताने लगी है
छुप-छुप कर जब मैं देखता हूं उसे
चबाके होंठ वो पलकें झुकाने लगी है
बेख़बर था मैं जिस जख्म के दर्द से
उसी दर्द से मुझे वो, जगाने लगी है
है दिल जीतने का उसे हुनर यादव
वो महफिल दिल की सजाने लगी है
- लेखराम यादव
( मौलिक रचना )
सर्वाधिकार अधीन है