"ग़ज़ल"
वो फ़ातिहा पढ़ने के बहाने नहीं आते!
तुर्बत पे मिरी शम्अ जलाने नहीं आते!!
हर बात समझ लेते हैं ऑंखों से मिरी वो!
इन ऑंखों को जज़्बात छुपाने नहीं आते!!
माना कि हक़ीक़त में मोहब्बत नहीं हम से!
ख़्वाबों में भी वो प्यार जताने नहीं आते!!
हम लाख बुलाऍं भी तो सुनते हैं कहाॅं वो!
हम रूठ भी जाऍं तो मनाने नहीं आते!!
माना कि उन्हें प्यार निभाना नहीं आता!
पहले की तरह ज़ुल्म भी ढाने नहीं आते!!
जितने हैं सभी यार कमाने में लगे हैं!
मिलने के लिए दोस्त पुराने नहीं आते!!
'परवेज़' कभी वक़्त ने मुड़ कर नहीं देखा!
फिर लौट के वो दिन वो ज़माने नहीं आते!!
- आलम-ए-ग़ज़ल परवेज़ अहमद