जंगल चुप है, पंछी रोते, हरियाली है बेहाल,
पेड़ों की छांवें पूछ रही, क्यों हुआ ये हाल?
शेरों की दहाड़ में अब डर नहीं, बस खालीपन है,
हाथियों के काफिले में चुप्पी का गूंजता मन है।
नीलगाय की आंखों में अब सपनों का घर नहीं,
वनराज की धरती पर जीवन का असर नहीं।
नदियाँ सूख रहीं हैं, ताल तलैया वीरान,
मगरमच्छ भी मौन हैं, नहीं रही वो जान।
तेंदुआ टकटकी बांधे देखे मानव की चाल,
मानव ने छीना उसका घर, दिया उसे भूख का जाल।
कबूतर नहीं उड़ते जैसे पहले आसमान में,
हर आहट डर बन गई है अब इस जहान में।
कभी चहकती थी जो बगुलों की टोली,
अब वो ढूंढे छांव, नहीं मिलती डोली।
चिपको आंदोलन की गाथाएं भी आज थक चली हैं,
कुदरत की परछाई में चीखें दम तोड़ चली हैं।
बचा लो इस संसार को, सुन लो वन की पुकार,
वरना न बचेगा जंगल, न जीवन का आधार।
डॉ बीएल सैनी
श्रीमाधोपुर सीकर राजस्थान