कुछ हक़ीक़त नहीं फसाने थे।
दूर के ढोल तो सुहाने थे।
उनकी बातों को देर से समझे,
उनके हर बार जो बहाने थे।
झूट से काम चल नहीं सकता,
कुछ तो वादे तुम्हें निभाने थे।
जो थे निगरां वहीं हक़ीक़त में,
चोर, शातिर वही पुराने थे।
हम जिन्हें बा'वफ़ा समझ बैठे,
बे'वफ़ा वो तो जाने-माने थे।
डाॅ फौज़िया नसीम शाद