चेहरे पर बड़ी गंभीरता लिए,
आँखों में थोड़ी नमी लगाए हो,
पर बातों में मीठा ज़हर भरकर
फिर से वही पुराना पाठ पढ़ाए हो?
तुम मुझे छलने आए हो,
और अब भी जीत समझ के आए हो।
कौन-सी आँखें पढ़ के आए हो,
जो मेरी चुप्पी को हार मान लाए हो?
क्या भगवान के यहाँ से कुछ पाया भी,
या बस चालाकी ही उठाए हो?
तुम तो वही हो न — जो हर बार
झूठ में सच की राख लगाए हो।
मैं तो टूटी थी — पर भीतर से,
तुम तो बाहर ही बाहर घबराए हो।
मैंने जलकर रौशनी पाई थी,
तुम तो धुएँ से ही लौट आए हो।
बातें वही — जो हर धोखेबाज़ कहे,
बस शब्द नए, अभिनय पुराने लाए हो।
तुम मुझे छलने आए हो,
पर मैं इस बार — ख़ुद को साथ लाए हो
कहते हो — “तुम बदल गई हो”,
अरे साहब! आप तो समय से भी पीछे आए हो।
जब मैं आगे बढ़ गई आत्मज्ञान में,
तब तुम अभी भी मोबाइल के पासवर्ड में अटके पाए हो!
तुम मुझे समझाने आए हो —
जब ख़ुद को अब तक समझ न पाए हो!
“मैं तुम्हारा भला चाहता हूँ” — कहकर,
फिर मन ही मन गणना लगाए हो?
छल तो तुमने बहुत किया साहब,
अब अभिनय में भी बोरिंग हो चले हो।
ताली भी अब नहीं बजती तुम्हारे जुमलों पर,
लगता है — शब्दकोश से पुराना माल उठाए हो
तो बात सीधी है — ये चालें अब नहीं चलेंगी,
ये आँखें अब किताबें पढ़ती हैं, छल नहीं।
और भगवान से अगर बुद्धि सच में लाए हो,
तो थोड़ा आत्मचिंतन भी क्यों न साथ लाए हो?