रोओगे…?
जैसे कोई बच्चा
जिसका खिलौना
अब बोलने लगा हो —
और कहने लगा हो —
“मैं खिलौना नहीं थी।”
या
तुम वैसे ही चुप रहोगे,
जैसे हर बार रहे —
जब मैं टूटी,
जब मैं जली,
जब मैं पत्थर हो गई?
अब मैं
तुम्हारे आंसुओं की
संवेदना नहीं रखती —
क्योंकि मैंने अपनी ही देह पर
वो हर अस्वीकार जिया है
जिसे तुमने शब्दों से नहीं,
चुप्पियों से कहा।
अब अगर तुम रोओगे,
तो मैं पोंछूँगी नहीं —
मैं देखूँगी —
जैसे तुमने मुझे देखा था —
तटस्थ, निष्क्रिय,
एक दृश्य की तरह।
तुम रोओ —
अपने खोए हुए साम्राज्य पर,
जहाँ मैं अब रानी नहीं,
बाग़ी बन चुकी हूँ।
तुम रोओ —
उन स्मृतियों पर
जिनमें मैं हर बार
तुम्हारे लिए मौन हो जाती थी —
और अब मेरी हर साँस
एक घोषणा है।
अब जब मैं लौट आई हूँ अपनी देह में —
तुम क्या करोगे?
मेरी देह से डरोगे?
या मेरी आत्मा से माफ़ी माँगोगे?
या फिर…
किसी और स्त्री के भीतर
फिर से वही सवाल उगाओगे…?