उठो धनंजय प्रवर पार्थ तुम ,धर्म कई एक साथ खड़े हैं l
पुत्र धर्म कहीं धर्म गुरु का ,कुल के दीपक जिद पे लड़े हैं l
अभिमानी अभिमान विवष हो ,ज्ञानी प्रतिज्ञा से जा बधे हैं l
उठो धनंजय मुक्त करो अब ,ग्लानि से गंगा सुत लिपटे हैं l
कर्म नहीं सूझे हे माधव, सन्मुख सबको देख खड़े l
कैसे धनुष उठाऊ केशव , इन सबके उपकार बड़े l
गोद खिलाया पितामह ने ,तो गुरूवर ने तिमिर हरे l
कैसे धनुष उठाऊ अच्युत , युध्य भूमि में बंधु खड़े l
पाप बोध में जीवन जूझे ,मन अशांत हो घड़ी - घड़ी l
अश्रु रक्त की थाल मिलेगी ,राजभोग से सजी हुई l
बंधु हंता क्या मै कहाऊ ,गुरु हत्या का पाप लगेगा l
एक दुराचारी के कारण , शदियों का अभिशाप लगेगा l
हंसे कन्हैया मुरली वाले , अर्जुन तू ज्ञानी रे अधूरा l
द्रोपदि के उस चीर हरण ने , इनके तप को हर लिया पूरा l
क्षमा योग्य इनमे न दिख्ता , मर्यादा ये तोड़ चुके हैं l
यज्ञ सुता के अभिशापों से , धर्म से ये मुख मोड़ चुके हैं l
अश्रुपूरित नयन लिए , सहमा सा अर्जुन खड़ा रहा l
प्रश्नो से घिरकर हो व्याकुल ,माधव से है बोल पड़ा l
मुझसे कहते धनुष उठाओ ,हो नरभक्षी शस्त्र चलाओ l
क्या होगे परिणाम समय के ,वासुदेव मुझको बतलाओ l
नारायण का विश्व रूप ,सहसा एकदम विस्तार हुआ l
सृष्टि का करने भक्षण ,वो महाकाल सा प्रकट हुआ l
धीरज छूटा देख पार्थ का ,गीता ज्ञान तब फूट पडा l
कर्मों का हो ज्ञान मोक्ष के , मार्गो को फिर खोल दिया l
निष्काम कर्म को श्रेष्ठ बताया ,जग में कर्म नियन्ता ने l
तीनो कालो के संचालक, धर्म रूप भगवंता ने l
पत्ता -पत्ता हर डाली में ,स्वांश - स्वांश मे बसकर भी l
संकल्प स्वाधीनता दे दी है ,उस भगवन ने हर प्राणी में l
काम क्रोध मद मोह छोडकर ,मत्सर लोभ त्याग करके l
छः इन्द्रियों का कर परिमार्जन ,मन को अच्युत रख करके l
सत्कर्मो का करके चयन ,प्रारब्ध का करके परिमार्जन l
यश अपयश भगवत स्वरूप , परिणाम मोह त्याग करके l
सत्ता अपनी तज करके , उस परम सत्य के चरनो में l
सुख दुःख में रह एक रूप ,उस आनन्दरूप के चिंतन में l
चित में जब हो निरंकार , च्युत हो जग के बंधन से l
अंत समय ऐसा योगी , अभेद्य हो उस आनंद घन से l
उप्रोक्ता धनंजय कविता तेजप्रकाश पाण्डेय ✍️