टूटकर बिखरी हुई थी,
प्रीति की वह स्वर्ण माला !
राह चलते टोकती थी ,
मुझको मेरी पाठशाला !
क्या नया तुमको था पाना ,
यूँ चले फिर रूठ करके !
हमभी तो तुमको दिये थे,
आशमा से तोड़ तारे !
प्रीत बचपन की तुम्हारे ,
मेरे आँगन की कली थी !
साथ जिसके तुम थे खेले ,
संग में तेरे वह चली थी !
फिर अचानक क्या थी सूझी ,
बंधनो को तोड़ बैठे !
भूल बैठे बचपने को ,
नेह सारे तोड़ बैठे !
तोड़ बैठे दीपको को ,
परमपराओ से गढ़े जो!
फिर ये कैसी रोशनी दी ,
आँसुओं से है उजाला!
करते स्वागत हम तुम्हारी ,
आज की जो रीतियाँ हैं !
हा ये माना चूक कुछ थी ,
रोकती पथ रूढ़ियां है!
पर न भूलो दर्शनों मे,
ज्ञान कितना है समाया !
है निशानी प्रेम की सब ,
पीढियों से जो कमाया !
लो सम्हालो सभ्यता को ,
संस्कृति की लाज रखना !
है धरोहर सब ये अपनी ,
इसको तुम आबाद रखना !
आधुनिकता की बहस मे,
अपने प्यारे आचरण में ,
तुम हमेशा जोड़ लेना ,
इसको ना तुम छोड़ देना !
राष्ट्र का गौरव यही है ,
पीढ़ियों से जोड़ रक्खा !
इतना तुम तो याद रखना ,
इनको तुम आबाद रखना !
जोड़ देना श्रृखंला को ,
जिसको तुम थे तोड़ आये !
जाके देखो गाँव अपना ,
जिसको तुम थे छोड़ आये !
क्या नया तुमको था पाना ,
उनको जो तुम छोड़ आये !
प्रीत बचपन की तुम्हारे ,
आज भी रस्ता निहारे !
जाके उसको देख लेना ,
सभ्यता मत छोड़ देना !
-तेज प्रकाश पांडे