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तन्दूर तपा
धरती रोटी सिंकी
दहके लाल -
आग का गोला
फट गया सुबह
बिखरे शोले -
सूखे गले से
कलप रही हवा
घूँट पानी के -
लपटों -घिरा
अगिया बैताल-सा
लू का थपेड़ा -
आग की गुफ़ा
भटक गई हवा
जली निकली -
फटा पड़ा है
हज़ार टुकड़ों में
पोखर-दिला -
धूप से तपा
देह पर फफोले
ले, दिन फिरा -
कुपिता धरा
अगन-महल में
आसन-पाटी -
धूप दरोगा
गश्त पर निकला
आग-बबूला -
जेठ की आँच
हवाएँ खौलती हैं
औटते जीव -
पानी की धुन
सूखे गले भटके
राजा मछेरा* -
धधक रही
लाल पीली कनेर
सड़कों पर -
फूलों से लदा
बूला होशो-हवास
अमलतास -
हत शोभा श्री
निर्जला उपासी
जेठ की धरा -
उबल रहे
ब्रह्माण्ड के देग में
चर-अचर -
वन-अरण्य
जलें रूई मानिन्द
लपटें, धुँआ -
आया है द्वार
धूल-भरी झोली ले
जोगी बैसाख -
अंगारे बिछा
सोने चली धरती
लपटें ओढ़ -
नीम-बेहोश
करवट से लेटी
है दोपहरी -
तक़्न है रूखा
होंठों जमीं पपड़ी
वैशाखी धरा -
प्यासी चिड़िया
ख़ुश, टोंटी में छिपा
दो बूँद पानी -
कुँए, छबील
प्यास बूझने वाले
मीत लापता -
सती का शव
काँधे डाले घूमते
बौराए रुद्र -
गुलमोहर
खिला, आग रंग की
धूप -छतरी
कवियित्री - सुधा गुप्ता