क्षुधा संपन्न विडंबना से
युक्त है यह अष्ट पर्व।
कल्पना नहीं है यह
बुभुक्षा के अष्ट पर्व।।
सरल, विकट, विकृत, विचित्र
स्वप्न की कथा नहीं।
अनुभवों के सूत्रों की
व्याख्या है यह अष्ट पर्व।।
आरम्भ में, धन, विवेक
एवं सम्मान प्रचुर था।
क्षय विषय मात्र किन्तु
ज्ञान केवल भ्रम था।।
प्रथम पर्व के प्रारम्भ में
धन विलय अतिरिक्त हुआ।
विवेक लुप्त विचार विफल
तन्द्रा विस्तार प्रबल हुआ।।
धन ज्ञान रहित मनुष्य
अहंकार के हित हुआ।
क्षणभर सुख के लोभ में
क्षुधा से वह परिचित हुआ।।
द्वितीय पर्व में प्रवेश कर
शरीर समर्थ सबल था।
भ्रमित मन में किन्तु
विश्वास अधिक अटल था।।
अहंकार एवं गर्व का;
प्रयत्न एवं प्रयास का;
स्पष्ट अंतर धूमिल हुआ,
उपवास एवं उपहास का।।
तृतीय पर्व की उत्तेजना
में कर गए उद्घोषणा।।
व्याकुलता को त्यागने
की है कठिन उपासना।।
शरीर एवं मन भी किन्तु
सद्य स्मरण करे अत्यंत,
वात पित्त के अनियंत्रण में
अनुभूति है यथा ज्वलंत।।
चतुर्थ पर्व की दिशा
में अग्रसर शरीर हुआ।
उचित अनुचित के तर्क में
मन मस्तिष्क विलीन हुआ।।
जगत जन समय स्थान
स्मृति पर स्पष्ट पूर्ण विराम
लगा कर निद्रयोग में
मनुष्य सद्य अचेत हुआ।।
पंचम पर्व कठोर था
मनुष्य भाव विभोर था |
मूर्छित चित्त में वास
निर्बलता घोर था ||
भोजन की लालसा अदम्य
धन क्षमता का अभाव था |
शक्तिहीन शरीर था किन्तु
स्वाभिमान जिवंत था ||
षष्ठम पर्व के प्रारम्भ में
मनोबल का संचार हुआ।
नवीन ऊर्जा की खोज में
सद्य एक तरंग उठा ||
योद्धा स्वरुप मन विवेक
हस्त समस्त शरीर के
कोटि कणों का यथा
मानो पुनर्जन्म हुआ ||
सप्तम पर्व सम्पूर्ण
मौन शांतिपूर्ण था |
मनुष्य देहभान मुक्त
बुद्धियोग में रमनीक था ||
नवीन उत्साहपूर्वक मन
केवल भूतकाल को टटोलता।
पुनः क्षुधित शरीर न हो
स्मरण क्षण क्षण वह करता ।।
अष्टम पर्व में अंततः
तन्द्रा पराजय हुआ।
दृढ संकल्प एवं विश्वास
पुनः विजय हुआ।।
एकत्रित निष्ठा कर मन
ने अंतर्द्वंद समाप्त किया ।
अनिश्चित काल से प्रचलित
भ्रम को खंडित किया ।।
आत्मा ईश्वर का है अंग,
आत्मबल उच्च है।
किन्तु शरीर की अवेहलना,
पाप यह लज्जापूर्ण है ।।
शरीर निवास, शरीर देवालय,
शरीर में आत्मा प्रतिष्ठित है ।
शरीर क्षुधित, भोजन वंचित
निरादर यह अतिरिक्त है ।।
अष्ट पर्वो का विवरण
प्रकाण्ड उपलब्धी नहीं ।
तन्द्रा से आसक्त का
हानी है कोई लाभ नहीं ।।
मन सचेत तन सबल
विकल्प नहीं लक्ष्य हो ।
विवेक सशक्त निष्पक्ष
निडर सर्वोपरि सत्य हो।।
विचार आशावाद निमित्त
जीवन का है यह सार सर्व ।
किन्तु पुनः परिहरन न हो
बुभुक्षा के अष्ट पर्व।।
कवि - श्री सचिन कारकुन