"प्रेमचन्द"
हे मानव, तुम अपने घर को 'सेवासदन' बनाओ।
'कर्मभूमि' धरती पर रहकर कर्मपन्थ अपनाओ ।
'रंग भूमि' यह दुनिया, इसमें अभिनय सफल दिखाओ।
प्रकृति 'निर्मला' बुला रही है, इससे दूर न जाओ ।
'प्रेमाश्रम' में रहकर सुन्दर गीत प्रीत का गाओ।
'प्रतिज्ञा' कर तुम हरने की जगमग दीप जलाओं ।
पाने को 'वरदान' 'कृष्ण' से तुम साधक बन जाओ।
करो सदा 'गोदान' धरा पर पय की धार बहाओ ।
'गबन' बहुत घातक पातक है, उसके पास न जाओ।
'मानसरोवर' में तुम गोता बारम्बार लगाओ ।
विमल 'प्रेम की बेदी पर तुम जन-जन को बैठाओ।
काशी, मगहर और 'कर्बला' तुम सबका गुन गाओ ।
'प्रेमचन्द' की धवल चाँदनी में जग को नहलाओ ।
समराकुल भू के आँगन में शान्ति ध्वजा फहराओं ।
रचनाकार- पल्लवी श्रीवास्तव,
ममरखा, अरेराज, पूर्वी चम्पारण (बिहार )