धूप थी तीखी, पथ थे काँटों से भरे,
पाँव जलते थे, छाले आँसुओं से गिरे।
तब समझ आया — क्यों ज़रूरी हैं जूते,
हर सफ़र में ये बनते हैं साथी सच्चे।
जगह-जगह बिखरे हैं पत्थर कटुबाण-से,
चल नहीं सकता मनुष्य केवल अरमान से।
पद-रक्षक बनते हैं ये मौन प्रहरी जैसे,
संघर्ष की धरती पर चलते हैं दिन-रैसे।
काँटों से रक्षा, धूल से दूरी कराते,
जीवन के पथ में निज धर्म निभाते।
छालों का इतिहास छुपा इनकी छाया में,
पीड़ा का संवाद सहे इनकी माया में।
गाँव हो या राजपथ, सबके लिए एक जैसे,
छोटे हों या बड़े, चलते सब इनके पैसे।
श्रद्धा-संवेदना का प्रतीक नहीं सही,
पर जूते बिन यात्रा भी अधूरी कही।
"पदपीठावरण" कहें या साधारण वस्तु,
जूतों के बिना हर कदम लगता है त्रस्तु।
अमित श्रीवास्तव