👉 बह्र - बहर-ए- मुतकारिब मुसम्मन सालिम
👉 वज़्न - 122 122 122 122
👉 अरकान - फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
यूँ कहने को अपना ये सारा जहाँ है
मगर सोचिए कौन अपना यहाँ है
ये दौलत ये शुहरत हैं पल भर के किस्से
न जाने बशर को क्यूँ इनका गुमाँ है
इसे रूह भी एक दिन छोड़ देगी
बदन तो किराए का बस इक मकाँ है
सफ़र ये सफ़र भी है कैसा हमारा
है सब साथ पर फ़ासला दरमियाँ है
ज़हालत के हालात बदलेंगे कैसे
समझदार इंसाँ ही जब बे-जुबाँ है
है सर पे जो छत और रोटी मयस्सर
तो समझो ख़ुदा आप पर मेहरबाँ है
किसी के लिए 'शाद' आसाँ बहुत है
किसी के लिए जिंदगी इम्तिहाँ है
विवेक'शाद'