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The Flower of WordThe Flower of Word by Vedvyas Mishra The Flower of WordThe novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

        

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The Flower of Word by Vedvyas MishraThe Flower of Word by Vedvyas Mishra
Dastan-E-Shayara By Reena Kumari Prajapat

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The novel 'Nevla' (The Mongoose), written by Vedvyas Mishra, presents a fierce character—Mangus Mama (Uncle Mongoose)—to highlight that the root cause of crime lies in the lack of willpower to properly uphold moral, judicial, and political systems...The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

                    

मैंने ग़लती नहीं की थी, बस नियम तोड़े थे

मुझे दंड दिया गया —
उस बात के लिए,
जो मैंने सही मानकर की थी।

मैंने ग़लती नहीं की थी —
बस, नियमों के बाहर
साँस लेना चाहा था।
पर वहाँ हवा भी अपराध थी।

“जो सवाल करता है, वो ‘अच्छा बच्चा’ नहीं रहता”

मुझे सिखाया गया था —
“सुनो, पर सवाल मत करो।”
मैंने पूछा — “क्यों?”
तो मेरी आँखों में
अभिमान देख लिया गया।

मैंने चुप्पी के विरुद्ध
अपनी आवाज़ रखी —
तो मुझे द्रोही कह दिया गया।

जो झुकता नहीं,
उसे झुकाया जाता है —
या फिर तोड़ा जाता है।
मैं दोनों में आई।

“ग़लत मत कहो — बस चुप रहो”
मैंने ये नहीं सीखा था
कि सच्चाई को भी
समय देखकर बोलना पड़ता है।
मैंने वक्त नहीं देखा,
चेहरे नहीं परखे,
केवल अनुभव कहा —
और मुझे ‘असभ्य’ कहा गया।

मैंने नियम तोड़े थे —
पर वो नियम ही
अन्याय की दीवार थे।

“न्याय वो नहीं, जो बहुमत बोले”

सब कहते रहे —
“तुम गलत हो, क्योंकि अकेली हो…”
पर मेरे भीतर की नदी
शांत थी, निर्मल थी।

सच को समर्थन नहीं चाहिए होता,
बस हिम्मत चाहिए होती है —
जिस दिन मैंने वो दिखा दी,
उसी दिन मुझे गलत साबित कर दिया गया।

अगर प्रेम माँगना,
सम्मान की उम्मीद करना,
और अपने लिए खड़े होना अपराध है —
तो हाँ,
मैंने ‘अपराध’ किया था।

पर वो ग़लती नहीं थी।
वो मेरी आत्मा की आवाज़ थी,
जो तुम्हारे नियमों में फिट नहीं बैठी।

मैं ग़लत नहीं थी —
मैं बस वो थी,
जिसने मौन के महल में
एक दरार डाल दी थी।

मैंने ग़लती नहीं की थी,
मैंने वो नियम तोड़े —
जो इंसान को इंसान नहीं,
एक कठपुतली बनाते हैं।




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रचना के बारे में पाठकों की समीक्षाएं (2)

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अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र' said

हुत सशक्त और आत्मा को छू लेने वाली कविता है... जैसे हर पंक्ति किसी घुटन के खिलाफ़ उठी आवाज़ बन गई हो। नियमों की दीवारों पर लिखी ये दास्तां सच में सोचने पर मजबूर करती है। आपकी ये कविता बस शब्द नहीं, एक साहस है। सलाम! 🙏🔥

अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र' said

बहुत सशक्त और आत्मा को छू लेने वाली कविता है... जैसे हर पंक्ति किसी घुटन के खिलाफ़ उठी आवाज़ बन गई हो। नियमों की दीवारों पर लिखी ये दास्तां सच में सोचने पर मजबूर करती है। आपकी ये कविता बस शब्द नहीं, एक साहस है। सलाम! 🙏🔥

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