मुझे दंड दिया गया —
उस बात के लिए,
जो मैंने सही मानकर की थी।
मैंने ग़लती नहीं की थी —
बस, नियमों के बाहर
साँस लेना चाहा था।
पर वहाँ हवा भी अपराध थी।
“जो सवाल करता है, वो ‘अच्छा बच्चा’ नहीं रहता”
मुझे सिखाया गया था —
“सुनो, पर सवाल मत करो।”
मैंने पूछा — “क्यों?”
तो मेरी आँखों में
अभिमान देख लिया गया।
मैंने चुप्पी के विरुद्ध
अपनी आवाज़ रखी —
तो मुझे द्रोही कह दिया गया।
जो झुकता नहीं,
उसे झुकाया जाता है —
या फिर तोड़ा जाता है।
मैं दोनों में आई।
“ग़लत मत कहो — बस चुप रहो”
मैंने ये नहीं सीखा था
कि सच्चाई को भी
समय देखकर बोलना पड़ता है।
मैंने वक्त नहीं देखा,
चेहरे नहीं परखे,
केवल अनुभव कहा —
और मुझे ‘असभ्य’ कहा गया।
मैंने नियम तोड़े थे —
पर वो नियम ही
अन्याय की दीवार थे।
“न्याय वो नहीं, जो बहुमत बोले”
सब कहते रहे —
“तुम गलत हो, क्योंकि अकेली हो…”
पर मेरे भीतर की नदी
शांत थी, निर्मल थी।
सच को समर्थन नहीं चाहिए होता,
बस हिम्मत चाहिए होती है —
जिस दिन मैंने वो दिखा दी,
उसी दिन मुझे गलत साबित कर दिया गया।
अगर प्रेम माँगना,
सम्मान की उम्मीद करना,
और अपने लिए खड़े होना अपराध है —
तो हाँ,
मैंने ‘अपराध’ किया था।
पर वो ग़लती नहीं थी।
वो मेरी आत्मा की आवाज़ थी,
जो तुम्हारे नियमों में फिट नहीं बैठी।
मैं ग़लत नहीं थी —
मैं बस वो थी,
जिसने मौन के महल में
एक दरार डाल दी थी।
मैंने ग़लती नहीं की थी,
मैंने वो नियम तोड़े —
जो इंसान को इंसान नहीं,
एक कठपुतली बनाते हैं।