लोग कहते रहे – “खुश रहो, मुस्कराओ सदा”,
मैं लहू पी के भी, हँसी के दिये जलाता रहा।
किसने देखा कि पत्थर फेंके गए फूलों में,
मैं तो हर चोट पे सिर झुकाता रहा।
आश्वासन थे बहुत, शब्दों के मेले लगे,
पर कोई साथ न आया, मैं ही निभाता रहा।
जिनसे सीखा था जीना, उन्हीं की बेरुख़ी से,
हर सबक ज़िंदगी का मैं दोहराता रहा।
चुप्पियों की भीड़ में, मैंने स्वर खोजा बहुत,
दर्द को ओढ़ कर, गीत बनाता रहा।