मैंने जब प्रश्न पूछे —
तो बोले “बहुत सोचती है!”
मैंने जब मौन साधा —
तो बोले “घमंड करती है!”
मैंने जब प्रेम में अपनी आत्मा दी —
तो बोले “ये तो बहुत clingy है!”
मैंने जब पीछे हट कर साँस ली —
तो बोले “देखा, यही असली रूप है इसका!”
मैंने चेतना को चुना —
“Beauty Parlor” नहीं,
“Brahm-Ras” में समय बिताया
तो कहने लगे —
“ये औरत नहीं रही, ये तो कोई किताब बन गई है!”
मैंने कहा — “मुझे अब validation नहीं चाहिए”,
तो बोले — “देखा? Ego देखो इसका!
हमसे तो ऊपर उड़ने लगी है!”
मैंने जब कहानियाँ लिखीं —
तो रिश्तेदार बोले —
“कहीं हमारी बहू हमें ही न लिख दे!”
और हाँ —
जब मैंने ये कहा कि
“भगवान मेरे भीतर हैं”
तो माँ ने भी आँखें तरेरी —
“इतना पढ़ लिया कि पगला गई!”
क्या कहूँ?
मैंने बस इतना किया —
कि खुद को देखा,
बिना मेकअप,
बिना “approval”,
बिना “likes” के।
अब मैं चुप रहती हूँ —
पर मेरी चुप्पी में श्लोक हैं।
अब मैं कम दिखती हूँ —
क्योंकि अब मैं भीतर दीप्त हूँ।
अब जब मैं कहती हूँ —
“मुझे अकेलापन नहीं, शांति चाहिए”
तो लोग कहते हैं —
“बहुत बोल्ड हो गई है!”
हाँ, मैं बोल्ड हूँ —
क्योंकि अब मैं डरती नहीं
कि कौन मुझसे क्या सोचेगा।
मैं अब वो नहीं
जो चाय में कम चीनी होने पर
मुस्कुराकर कहे —
“कोई बात नहीं!”
अब मैं कहती हूँ —
“मेरे स्वाद का अपमान मत करो।”
क्योंकि चेतना जब बढ़ती है,
तो औरत को ‘सहनशील’ नहीं,
‘साहसी’ बनना पड़ता है।
और साहस —
लोगों को अहंकार जैसा लगता है।
अब हँसती हूँ —
पर हँसी में कांटे हैं,
अब बोलती हूँ —
तो शब्दों में ज्वालामुखी।
अब प्रेम करती हूँ —
तो खुद से।
**और हाँ,
अगर तुम्हें लगता है
कि मैं बहुत बदल गई हूँ —
तो तुम ठीक सोच रहे हो।
मैं अब —
जाग गई हूँ।
— शारदा