कभी कभी मैं देखता हूं..
कुछ चलते फिरते तो
कुछ कालजई शब्दों को
एक जगह धकियाकर
कभी अलग कर तो
कभी चिपकाकर
एक धराशाई सी कविता गढ़ी जाती है..
उसमें कुछ पीतवर्णी पेड़, कुछ गौरैया
कुछ रेंगने वाले जीव सकपकाते से
किसी तरह अपनी जगह तलाश रहे होते हैं..
उस कविता को देखकर,
मैं थोड़ी देर के लिए हतप्रभ
हो जाता हूं..
और सोचता हूं उसे कुछ आम आदमी की
जुबां में ढाल पाऊं,
उसी उधेड़बुन में
फिर एक बार नए सिरे से उसे पड़ता हूं
मगर उसका आकर–प्रकार फिर
गढ़मढ़ होने लगता है...
कुछ आसान से सपने, कुछ आसान से
शब्दों के कलेवर वाली कोई कविता
कहीं मिले, तो मुझे सुनाना जरूर..।
पवन कुमार "क्षितिज"


The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra
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