ख़त्म होती मानवीय संवेदनाएँ
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आज का मनुष्य जिस तेज़ी से भौतिकता की दौड़ में आगे बढ़ रहा है, उसी तेज़ी से उसके भीतर की मानवीय संवेदनाएँ क्षीण होती जा रही हैं। व्यक्ति अब केवल ‘मैं’ और ‘मेरा’ तक सिमट कर रह गया है। यह चिंताजनक स्थिति केवल वैचारिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक आचरण और घटनाओं में भी प्रत्यक्ष रूप से देखी जा सकती है।
आज सड़क दुर्घटनाओं में घायल लोगों को सहायता की आवश्यकता होती है, लेकिन लोग या तो तमाशबीन बने रहते हैं या फिर वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर अपलोड करने लगते हैं। यह कैसी संवेदनहीनता है, जहां एक मानव का जीवन हमारे कैमरे की ‘क्लिक’ से कम अहमियत रखने लगा है?
जिस देश और संस्कृति में 'परोपकार' और 'अतिथि देवो भव:' जैसे विचार जन्म लेते हैं, वहां का समाज यदि इस कदर नृशंसता और उदासीनता में डूब जाए, तो यह केवल मानवता के लिए नहीं, बल्कि पूरी सभ्यता के लिए भी एक चेतावनी है।
हाल ही की कुछ घटनाएं मानवता को शर्मसार कर देने वाली हैं — भीड़ के बीच किसी को जला देना, एक घायल व्यक्ति को मदद के बिना तड़पते छोड़ देना या फिर ऑनर किलिंग जैसे अमानवीय कृत्यों में संलिप्त रहना — यह सब दर्शाता है कि अब मानव और पशु के बीच का नैतिक अंतर धुंधलाने लगा है।
यह प्रश्न अब उठना चाहिए — "क्या वाकई हम इंसान हैं?"
यदि हममें सहानुभूति, करुणा और दुःख में साथ देने की भावना नहीं बची, तो हमारा ‘इंसान’ कहलाना मात्र एक भ्रम है।
समाज की प्रगति केवल तकनीकी या आर्थिक विकास से नहीं होती, बल्कि वास्तविक विकास तब होता है जब हम दूसरों के दुःख को समझें, किसी अजनबी की पीड़ा में सहभागी बनें, और बिना किसी स्वार्थ के किसी की मदद कर पाएं। यही मानवता है, यही सभ्यता है।
हमें फिर से अपने भीतर उस संवेदनशील मनुष्य को जगाना होगा, जो किसी और की पीड़ा देखकर विचलित हो उठे, जो केवल खुद के लिए नहीं, समाज के लिए भी जिए।
, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यदि हम आज भी नहीं जागे, तो आने वाला समय केवल तकनीकी रूप से उन्नत लेकिन मानवीय रूप से शून्य समाज बन जाएगा। संवेदनाओं की पुनः स्थापना ही मानवता की पुनर्स्थापना होगी।
डाॅ फ़ौज़िया नसीम शाद