तू अगर सलीक़े से तोड़ता मुझको,
तो मेरे टुकड़े भी तेरे काम आते।
मैं जज़्ब हो जाता तेरी ज़िल्लत में,
तेरे इल्ज़ामों में कोई नाम आते।
मुझे गाली दे, मगर थोड़े अदब से दे,
मैंने मोहब्बत में ख़ुद को ज़बान दी है।
तूने तो ठोकर मारी बेमक़सद,
मैंने हर चोट को भी अज़ान दी है।
तूने जो तोड़ा — वो मैं न था,
मैं तो अब भी साँस लेता हूँ तन्हा।
तूने जो जिया — वो मैं ही था,
पर अब वो ‘मैं’ नहीं, अब सिर्फ़ सज़ा।
तेरा हर वाक्य इक सज़ा सा लगा,
तेरा हर मौन एक लानत था।
काश तू तालीम लेता तोड़ने की,
तेरे हर वार में शर्म की राहत था।
तेरी बेरुख़ी में जो हुनर होता,
मैं उसे भी इबादत बना लेता।
तू क़ातिल है — ये तो तय था ही,
पर तू कलाकार होता… तो मैं मर के भी अमर होता।
मुझे नाज़ था अपने उजालों पर,
तूने उन्हें अंधेरों में फेंक दिया।
मैंने माँगा था एक मुक़द्दस लम्हा,
तूने वक़्त तक को भेंक दिया।
तू अगर सलीक़े से तोड़ता मुझको,
तो टूटकर भी कुछ शान रख पाता।
अब तो मैं बस बिखरा हुआ सच हूँ,
जिसे झूठ भी पढ़ नहीं पाता।
शारदा’ तू भी क्या बेवक़ूफ़ निकली आख़िर,
जिसने क़ातिल से दवा की उम्मीद कर ली।