कल
मैं नदी के किनारे बैठा था —
जहाँ जल बह रहा था,
पर उसमें तेरी कृपा की ठंडक नहीं थी, प्रभु।
हवा चल रही थी —
पर वो तेरे नाम की गंध लेकर नहीं आई,
जैसे पहले आती थी,
जब मैं तुझे याद कर
बस यूँ ही रो पड़ता था।
पेड़ वैसे ही खड़े थे —
पर उनमें वो मौन नहीं था
जो तेरी उपस्थिति में
हर पत्ता ओढ़ लिया करता था।
अब तो लोग
पेड़ों से बातें नहीं करते —
वे सिर्फ लकड़ियाँ गिनते हैं।
हे मेरे प्रीतम,
तेरा नाम अब भी लिया जाता है —
पर उसमें प्रेम नहीं होता,
बस रिवाज़ होता है।
तू तो कहता था।
”जो दूसरो के दुख में भी रोये वही इंसान है“
अब लोग
रोते नहीं —
बस इमोजी भेजते हैं।
मैंने धरती से पूछा —
“क्या तू अब भी मेरा ही घर है, प्रभु?”
उसने चुप रहकर
मेरे मौन से मौन मिला दिया —
जैसे तू अक्सर कर देता है
जब मैं
तेरे उत्तर की जगह
अपने भीतर उतर जाता हूँ।
आसमान अब भी नीला है —
पर उसमें कोई उड़ान नहीं।
मैंने उसमें झाँका
कि शायद कोई इशारा हो —
पर अब तेरे संकेत भी
नोटिफिकेशन में खो जाते हैं।
प्रभु,
मैं अब भी सोचता हूँ —
क्या मैं अब भी तेरे योग्य मनुष्य हूँ?
कभी-कभी
जब किसी अजनबी की पीठ पर
मेरी बाँह अपने-आप चली जाती है,
या
किसी के मौन में
तेरी ही पुकार सुनाई देती है —
तो लगता है…
हाँ —
मैं अब भी मनुष्य हूँ…
तेरा मनुष्य।“
- इक़बाल सिंह “राशा”
मानिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड