जहरीली साँसें
डॉ.एच सी विपिन कुमार जैन" विख्यात"
शहरों की सड़कों पर, धुआँ घना पसरा,
वाहनों का ये ज़हर, हवा में घुल गया।
फ़ैक्ट्रियों की चिमनियों से, जो कालिख निकली,
हमारी साँसों में जाकर, बन गई वो ज़हरीली।
फेफड़े हमारे रोते हैं, हर पल घुट-घुट कर,
अदृश्य ये दुश्मन बैठा, सीने में घुसकर।
बच्चों की हँसी पर भी, अब छाया है ग्रहण,
साँस लेने में दिक्कत, हर चेहरा है मलिन।
धूल-मिट्टी और रसायन, आँखों में जलन दें,
कैसे स्वच्छ हवा में हम, चैन से अब रहें?
अस्मा और खांसी का, ये नित नया है ज़ोर,
पर्यावरण का विष ये, फैला हर ओर।
हम ही ने ये जाल बुना, अब हम ही हैं फँसे,
साफ हवा को तरसते, जीवन यूँ हीं ढँसे।
यह ज़हर रोज़ निगलते, अपनी ही भूल से,
बीमारियों के घेरे में, निकलते मूल से।